Wednesday, December 16, 2009

विद्रोह

कब तक तेरी हर बात को नियति मानकर
स्वीकारता रहूं में,
कब तक तेरे हर निर्णय को प्रारब्ध का फल
समझ टालता रहूं में
में ना समझू नियति को
ना जानू मर्म प्रारब्ध का
में तो जानता हूँ बस एक बात
जब कर्म पे हैं मेरा हक
तो फल पे क्यों नहीं मेरा अधिकार
मुझे दो बस इसी बात का उत्तर
कर्म और फल में कहाँ से आए
ये नियति प्रारब्ध आदि सब
आज में चाहता हूँ इन प्रश्नो का उत्तर
यदि इसे विद्रोह समझो तुम या तुम्हारा समाज
ये विद्रोह करूँगा में बार बार
हां हां विद्रोह करूँगा में बार बार |

Thursday, April 30, 2009

नींद से बोझिल आँखें थीं ....

नींद से बोझिल आँखें थीं अलसाई सुबह थी
शहनाइयों की गूँज थी विदाई की घडी थी
हंसी ठिठोली से माहौल खुशनुमा था
सबको अपने अपने घर पहुँचने की जल्दी थी
इन सब के बीच कहीं किसी एक कोने में
एक हिरनी चुपचाप दबी सहमी बैठी थी
किससे कहे वो अपना दुखडा किसे बताये अपना भय
सदा प्यारी मां को भी उसे भेजने की जल्दी थी
कैसा होगा नया घर कैसे होंगे उसके लोग
इसी सोच में वो कितनी ही रात जगी थी
पिता के कंधे पे सर रखकर रोना चाह रही थी
पर उन्हें भी अब सामान रखवाने की जल्दी थी
आ ही गयी वो घडी जिससे वो डरती थी
सखी सहेली मां मौसी उसे चुपाने साथ खड़ी थीं
रोते रोते कार में बैठी रोते में ही कार चली
मां बाबुल का आँगन वो तो पीछे छोड़ चली थीं

Wednesday, March 25, 2009

ना जाने किस धारा


ना जाने किस धारा मैं बहते जा रहे हैं लोग यहाँ,
कौन देखे क्या पीछे छोड़ते जा रहे हैं लोग यहाँ
कहीं दौलत कहीं शोहरत कहीं पेट की खातिर
इंसानियत को ही कुचलते जा रहे हैं लोग यहाँ
सब दौड़ रहे हैं अपनी अपनी मंज़िलों की जानिब,
अपनो का ही साथ छोड़ते जा रहे हैं लोग यहाँ
कभी लालच कभी मज़हब कभी सियासत के चलते
एक दूसरे का गला काटते जा रहे हैं लोग यहाँ
जिन दरखतों की जड़ों में हैं साँपों के बसेरे,
उनकी साखों पे मचाने बनाते जा रहे हैं लोग यहाँ
जिन चरागों को किया रोशन जमाने के वास्ते,
उन्ही से मेरा ही घर जलाते जा रहे हैं लोग यहाँ