Wednesday, March 25, 2009

ना जाने किस धारा


ना जाने किस धारा मैं बहते जा रहे हैं लोग यहाँ,
कौन देखे क्या पीछे छोड़ते जा रहे हैं लोग यहाँ
कहीं दौलत कहीं शोहरत कहीं पेट की खातिर
इंसानियत को ही कुचलते जा रहे हैं लोग यहाँ
सब दौड़ रहे हैं अपनी अपनी मंज़िलों की जानिब,
अपनो का ही साथ छोड़ते जा रहे हैं लोग यहाँ
कभी लालच कभी मज़हब कभी सियासत के चलते
एक दूसरे का गला काटते जा रहे हैं लोग यहाँ
जिन दरखतों की जड़ों में हैं साँपों के बसेरे,
उनकी साखों पे मचाने बनाते जा रहे हैं लोग यहाँ
जिन चरागों को किया रोशन जमाने के वास्ते,
उन्ही से मेरा ही घर जलाते जा रहे हैं लोग यहाँ

1 comment:

Unknown said...

Very Good attempt according to this new world. I liked it very much