Thursday, April 30, 2009

नींद से बोझिल आँखें थीं ....

नींद से बोझिल आँखें थीं अलसाई सुबह थी
शहनाइयों की गूँज थी विदाई की घडी थी
हंसी ठिठोली से माहौल खुशनुमा था
सबको अपने अपने घर पहुँचने की जल्दी थी
इन सब के बीच कहीं किसी एक कोने में
एक हिरनी चुपचाप दबी सहमी बैठी थी
किससे कहे वो अपना दुखडा किसे बताये अपना भय
सदा प्यारी मां को भी उसे भेजने की जल्दी थी
कैसा होगा नया घर कैसे होंगे उसके लोग
इसी सोच में वो कितनी ही रात जगी थी
पिता के कंधे पे सर रखकर रोना चाह रही थी
पर उन्हें भी अब सामान रखवाने की जल्दी थी
आ ही गयी वो घडी जिससे वो डरती थी
सखी सहेली मां मौसी उसे चुपाने साथ खड़ी थीं
रोते रोते कार में बैठी रोते में ही कार चली
मां बाबुल का आँगन वो तो पीछे छोड़ चली थीं

1 comment:

श्रद्धा जैन said...

bahut bahut achha

Ek ladhki ki zindgi bhaut achhe se likhi hai dhiru

Aapko bahut bahut dino ke baad padha achha laga